उत्तराखंड में तीसरे फ्रंट की स्थिति: एक विश्लेषण
उत्तराखंड की राजनीति में परंपरागत रूप से दो प्रमुख दलों—भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (कांग्रेस)—का दबदबा रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में तीसरे मोर्चे या "तीसरे फ्रंट" के रूप में विभिन्न छोटे दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और निर्दलीय प्रत्याशियों की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती जा रही है। हालांकि तीसरा फ्रंट सत्ता की बागडोर संभालने की स्थिति में तो नहीं आया है, लेकिन इसकी मौजूदगी ने कई बार चुनावी समीकरणों को प्रभावित किया है। यह लेख उत्तराखंड में तीसरे फ्रंट की स्थिति, चुनौतियाँ, अवसर और भविष्य की संभावनाओं पर केंद्रित है।
तीसरे फ्रंट की परिभाषा
तीसरे फ्रंट से तात्पर्य उन राजनीतिक शक्तियों से है जो न तो भाजपा के साथ हैं और न ही कांग्रेस के साथ। इसमें आमतौर पर क्षेत्रीय दल, वामपंथी पार्टियाँ, सामाजिक संगठनों से निकले राजनीतिक समूह और निर्दलीय उम्मीदवार शामिल होते हैं। उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में जहां 70 विधानसभा सीटें हैं, वहाँ 3-5 सीटें भी तीसरे फ्रंट को एक निर्णायक भूमिका में ला सकती हैं, विशेषकर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में।
उत्तराखंड में तीसरे फ्रंट की ऐतिहासिक स्थिति
उत्तराखंड गठन के बाद से ही राज्य की राजनीति मुख्य रूप से भाजपा और कांग्रेस के बीच घूमती रही है। तीसरे फ्रंट की भूमिका सीमित रही, लेकिन यह पूरी तरह अप्रभावी भी नहीं रही।
2002 विधानसभा चुनाव में उत्तरांचल उत्तर मोर्चा और कुछ निर्दलीय प्रत्याशियों ने कुछ सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया था।
2012 में उत्तराखंड क्रांति दल (UKD) जैसी क्षेत्रीय पार्टी ने कुछ असर डाला, लेकिन आंतरिक गुटबाज़ी और संसाधनों की कमी ने इसे मजबूत विकल्प नहीं बनने दिया।
2022 विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) ने तीसरे फ्रंट की भूमिका में प्रवेश किया, लेकिन मतदाताओं को आकर्षित नहीं कर पाई और खाता तक नहीं खोल सकी।
वर्तमान में तीसरे फ्रंट की प्रमुख शक्तियाँ
1. आम आदमी पार्टी (AAP)
आप ने उत्तराखंड में शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार मुक्त शासन जैसे मुद्दों के साथ प्रवेश किया। हालांकि 2022 में यह सफल नहीं हुई, लेकिन पार्टी अब भी संगठनात्मक रूप से काम कर रही है और 2027 के लिए तैयारी कर रही है। दिल्ली और पंजाब की सफलता इसके लिए एक प्रेरणा है।
2. उत्तराखंड क्रांति दल (UKD)
UKD राज्य की पुरानी क्षेत्रीय पार्टी है, जो उत्तराखंड आंदोलन से निकली थी। इसकी वैचारिक पकड़ मजबूत रही है लेकिन नेतृत्व संकट और गुटबाजी ने इसकी साख को कमजोर किया है। हालांकि पहाड़ी इलाकों में इसकी अभी भी एक निश्चित पकड़ है।
3. वामपंथी दल
CPI, CPI(M) जैसे वामपंथी दल कुछ क्षेत्रों में सामाजिक आंदोलनों के ज़रिए सक्रिय रहे हैं, खासकर पर्यावरण और विस्थापन के मुद्दों पर। हालांकि चुनावी सफलता नहीं मिली, लेकिन ये दल वैकल्पिक राजनीति की आवाज़ को मजबूत करते हैं।
4. निर्दलीय उम्मीदवार और क्षेत्रीय संगठन
कई बार निर्दलीय प्रत्याशी स्थानीय मुद्दों और लोकप्रियता के बल पर सीट जीत लेते हैं। विशेष रूप से ग्रामीण और सीमावर्ती इलाकों में इनकी भूमिका अहम होती है। उदाहरण के लिए, 2022 में कुछ निर्दलीय प्रत्याशी कांग्रेस या भाजपा के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर देने में सफल रहे।
तीसरे फ्रंट की चुनौतियाँ
संगठनात्मक कमजोरी – छोटे दलों के पास न तो भाजपा और कांग्रेस जैसा संसाधन है और न ही संगठनात्मक ढांचा। इसका असर चुनावी तैयारियों पर साफ दिखता है।
नेतृत्व संकट – तीसरे फ्रंट की पार्टियों में अक्सर स्थायी और करिश्माई नेतृत्व की कमी देखी जाती है।
जनसमर्थन की कमी – लोग बड़े दलों को वोट देना ज्यादा सुरक्षित समझते हैं। उन्हें लगता है कि छोटे दलों को वोट देना "व्यर्थ" हो सकता है।
मीडिया कवरेज – बड़े मीडिया हाउस आमतौर पर बड़े दलों को ही प्रमुखता देते हैं, जिससे तीसरे फ्रंट की आवाज़ दब जाती है।
वोट कटवा की छवि – कई बार छोटे दलों को सिर्फ "वोट काटने वाले" दल के रूप में देखा जाता है, जिससे उन्हें गंभीर राजनीतिक विकल्प नहीं माना जाता।
अवसर और संभावनाएं
स्थानीय मुद्दों पर फोकस – तीसरे फ्रंट की पार्टियाँ यदि स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रहें तो वे जनता से बेहतर जुड़ाव बना सकती हैं। जैसे कि पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार।
युवा और पढ़े-लिखे मतदाता – शहरी युवा वर्ग में बदलाव की भावना है, जिसे तीसरे फ्रंट भुना सकता है।
गठबंधन की राजनीति – यदि छोटे दल आपस में गठबंधन करके एक संयुक्त मोर्चा बनाएं, तो वे एक मजबूत तीसरा विकल्प बन सकते हैं।
डिजिटल प्रचार – संसाधनों की कमी को डिजिटल प्लेटफॉर्म्स से कुछ हद तक संतुलित किया जा सकता है।
भविष्य की रणनीति
तीसरे फ्रंट को उत्तराखंड में प्रासंगिक बने रहने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने होंगे:
निरंतर जनसंपर्क अभियान – चुनावी मौसम के अलावा भी जनता के बीच बने रहना होगा।
स्थानीय नेतृत्व को उभारना – जमीनी नेताओं को सामने लाना होगा जो जनता की बात को सही मंच तक ले जा सकें।
नीति-आधारित राजनीति – केवल विरोध के लिए विरोध करने की बजाय वैकल्पिक नीतियाँ और योजनाएँ पेश करनी होंगी।
युवाओं और महिलाओं की भागीदारी – अगर यह वर्ग तीसरे फ्रंट की राजनीति में जुड़ता है तो नया विश्वास बन सकता है।
निष्कर्ष
उत्तराखंड में तीसरे फ्रंट की स्थिति फिलहाल सीमित है, लेकिन यह पूरी तरह अप्रासंगिक नहीं है। बदलते राजनीतिक माहौल, जनता की अपेक्षाओं और क्षेत्रीय असंतोष के बीच तीसरे फ्रंट के पास एक अवसर है कि वह खुद को एक वैकल्पिक शक्ति के रूप में प्रस्तुत करे। इसके लिए उसे एकजुटता, स्पष्ट नेतृत्व और जनता से जुड़े मुद्दों पर आधारित राजनीति करनी होगी। यदि तीसरा मोर्चा इन चुनौतियों को पार कर पाता है, तो वह भविष्य में उत्तराखंड की राजनीति में एक निर्णायक भूमिका निभा सकता है।
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